वकीलों को वरिष्ठ पदनाम वाली याचिका में न्यायाधीशों के खिलाफ ‘अपमानजनक’ टिप्पणियों पर सुप्रीम कोर्ट नाराज

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उच्चतम न्यायालय ने बृहस्पतिवार को वकीलों को वरिष्ठ पदनाम दिए जाने के खिलाफ दायर याचिका में न्यायाधीशों के खिलाफ लगाए गए “अपमानजनक और निराधार आरोपों” पर आपत्ति जताई। न्यायमूर्ति बी.आर. गवई और न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन की पीठ ने याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश हुए अधिवक्ता मैथ्यूज जे नेदुम्परा से पूछा, “आप कितने न्यायाधीशों के नाम बता सकते हैं जिनके बच्चों को वरिष्ठ वकील के रूप में नामित किया गया है?” याचिका में दिए गए कथनों का उल्लेख करते हुए पीठ ने कहा कि इसमें न्यायाधीशों के खिलाफ आरोप लगाए गए हैं। इसमें कहा गया है, “हमने पाया है कि संस्था के खिलाफ विभिन्न अपमानजनक, निराधार आरोप लगाए गए हैं।

पीठ ने याचिका में दिए गए कथनों का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था, “उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय के ऐसे वर्तमान या सेवानिवृत्त न्यायाधीश को ढूंढना यदि असंभव नहीं तो मुश्किल है, जिसका कोई पुत्र, भाई, बहन या भतीजा 40 वर्ष की आयु पार कर चुका हो और साधारण वकील हो।” नेदुम्परा और कई अन्य लोगों द्वारा दायर याचिका में, जिनमें कई अधिवक्ता भी शामिल हैं, वकीलों को दिये जाने वाले वरिष्ठ पदनामों के खिलाफ शिकायत उठाई गई है। सुनवाई के दौरान नेदुम्परा ने अदालत के समक्ष कुछ आंकड़े पेश करने की पेशकश की और तर्क दिया कि ‘बार’ को न्यायाधीशों से डर लगता है। न्यायमूर्ति गवई ने कहा, “श्रीमान नेदुम्परा, यह न्यायालय है। यह बंबई (मुंबई) का कोई बोट क्लब या आजाद मैदान नहीं है जहां भाषण दिए जाएं। इसलिए, जब आप अदालत में पेश हों, तो कानूनी दलीलें दें। सिर्फ तारीफें बटोरने के लिये नहीं।

न्यायालय ने कहा कि वह उन्हें याचिका में संशोधन करने की स्वतंत्रता देने को तैयार है। उसने कहा, “यदि आप याचिका में संशोधन नहीं करते हैं, तो हम आवश्यक समझे जाने वाले कदम उठा सकते हैं।” पीठ ने कहा कि वह इस मामले में आगे बढ़ सकती थी, लेकिन नेदुम्परा याचिका में कही गई बातों पर विचार करना चाहते थे तथा भविष्य की कार्रवाई के बारे में अन्य याचिकाकर्ताओं से परामर्श करना चाहते थे। पीठ ने कहा, “आप इन कथनों को हटाएंगे या नहीं? यह स्पष्ट करें कि आप इन अपमानजनक कथनों को कायम रखेंगे या नहीं।” याचिकाकर्ताओं को चार सप्ताह का समय दिया गया। याचिका में आरोप लगाया गया कि वकीलों को दो श्रेणियों में वर्गीकृत करना और अल्पसंख्यकों को “लाभ और विशेषाधिकार’ प्रदान करना समानता की अवधारणा और संविधान के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है। याचिका में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा हाल ही में लगभग 70 वकीलों को वरिष्ठ पदनाम दिए जाने को रद्द करने की मांग की गई है।