अपीलीय अदालतें बरी करने का निर्णय एक और दृष्टिकोण संभव होने के आधार पर नहीं पलट सकतीं: सुप्रीम कोर्ट

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उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि अपीलीय अदालत आरोपी को बरी करने के आदेश को केवल इस आधार पर नहीं पलट सकती कि मामले में एक और दृष्टिकोण संभव है। न्यायमूर्ति अभय एस ओका और न्यायमूर्ति उज्जल भुइयां की पीठ ने कहा कि अपीलीय अदालत जब तक इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचती कि बरी करने का फैसला साक्ष्य के विरूद्ध है, फैसले में कोई हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता। पीठ ने कहा, ”अपीलीय अदालत बरी करने के आदेश को केवल इस आधार पर नहीं पलट सकती कि एक और दृष्टिकोण संभव है। दूसरे शब्दों में, बरी करने का फैसला साक्ष्य के विरूद्ध पाया जाना चाहिए। जब तक अपीलीय अदालत इस तरह के निष्कर्ष पर नहीं पहुंचती है, बरी करने के आदेश में कोई हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता।” शीर्ष अदालत ने हत्या के एक मामले में अपील पर फैसला करते हुए यह कहा।

मामले में बरी करने संबंधी निचली अदालत के आदेश को उच्च न्यायालय ने पलट दिया था। पीठ की ओर से फैसला लिखने वाले न्यायमूर्ति ओका ने कहा कि यह एक स्थापित कानून है कि बरी किये जाने के खिलाफ अपील पर फैसला करने के दौरान अपीलीय अदालत को साक्ष्य को ध्यान में रखना होगा। शीर्ष अदालत ने कहा, ”उच्च न्यायालय ने इस स्थापित सिद्धांत की अनदेखी की कि बरी करने का आदेश आरोपी के बेगुनाह होने की पूर्वधारणा को और मजबूत करता है। फैसले पर गौर करने के बाद, हमने पाया कि उच्च न्यायालय ने मुख्य बिंदु पर विचार नहीं किया।” पीठ ने कहा कि सांविधिक प्रावधानों के अभाव में, इस मामले में आरोपी पर तार्किक संदेह से परे दोष साबित करने का दायित्व अभियोजन पर था। इसने कहा कि इस तरह उच्च न्यायालय का निष्कर्ष पूरी तरह से त्रुटिपूर्ण था और यह देश के कानून के प्रतिकूल है।

शीर्ष अदालत ने कहा कि उच्च न्यायालय के पास ऐसी कोई वजह नहीं थी कि बरी करने के आदेश को पलटा जाए। शीर्ष अदालत ने कहा, ”हम 14 दिसंबर 2018 के उच्च न्यायालय के फैसले और आदेश को निरस्त करते हैं और अपीलकर्ताओं की दोषसिद्धि रद्द करते हैं। निचली अदालत के पांच जुलाई 1997 के फैसले और आदेश को बहाल किया जाता है।” यह मामला एक पिता-पुत्र से संबद्ध है, जिन पर गुजरात में पंजाभाई नाम के व्यक्ति की हत्या को लेकर मुकदमा चलाया गया था। यह घटना 17 सितंबर 1996 को हुई थी।

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