कुकर्म के अपराधों के प्रावधानों को बीएनएस से हटाने के विरुद्ध अभ्यावेदन पर निर्णय करे केंद्र: दिल्ली हाईकोर्ट

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दिल्ली उच्च न्यायालय ने बुधवार को केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि वह अप्राकृतिक यौन संबंध और कुकर्म के अपराधों के लिए दंडात्मक प्रावधानों को भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) से बाहर करने के खिलाफ दायर जनहित याचिका को अभ्यावेदन के तौर पर विचार करे। बीएनएस ने भारतीय दंड संहिता का स्थान लिया है। कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश मनमोहन और न्यायमूर्ति तुषार राव गेलेला की खंडपीठ ने केंद्र सरकार से कहा कि वह इस अभ्यावेदन पर शीघ्रता से निर्णय ले और यदि हो सके तो छह महीने में फैसला किया जाए। अदालत ने याचिका का निपटारा कर दिया तथा याचिकाकर्ता को अनुमति दी कि यदि सरकार उसके अभ्यावेदन पर निर्णय लेने में देरी करती है तो वह अपनी याचिका लेकर फिर से अदालत आ सकता है। अदालत ने वकील गंतव्य गुलाटी की जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान यह फैसला सुनाया। गुलाटी ने अपना पक्ष व्यक्तिगत रूप से अदालत के समक्ष रखा। उन्होंने बीएनएस लागू होने से उत्पन्न ‘आवश्यक कानूनी विसंगती’ को दूर किए जाने का अनुरोध किया था। बीएनएस के लागू होने के कारण भारतीय दंड संहिता की धारा 377 निरस्त हो गई। केंद्र सरकार के स्थायी वकील अनुराग अहलूवालिया ने दलील दी कि यह मामला विचाराधीन है और इस पर समग्र दृष्टिकोण अपनाया जाएगा, जिसके लिए कुछ समय की आवश्यकता होगी। इसके बाद पीठ ने यह आदेश पारित किया।

अदालत ने कहा कि ऐसा नहीं हो सकता कि किसी अपराध को लेकर कानून में कोई प्रावधान न हो और अगर इस तरह का कोई अपराध आज हो जाता है, तो क्या होगा। उसने कहा कि अगर फिलहाल प्रावधान नहीं है तो अपराध को शारीरिक नुकसान पहुंचाने के प्रावधान के दायरे में लाया जा सकता है। पीठ ने कहा, ”लोग मांग यह कर रहे थे कि सहमति से बनाए गए (अप्राकृतिक) यौन संबंध को दंडनीय न बनाया जाए। आपने तो बिना सहमति के (अप्राकृतिक) यौन संबंध को भी दंडनीय श्रेणी से बाहर कर दिया। मान लीजिए, आज अदालत के बाहर कुछ होता है, तो क्या हम सब इसलिए अपनी आंखें बंद कर लें क्योंकि यह कानून की किताबों में दंडनीय अपराध नहीं है?” पीठ ने कहा कि इस मामले में जल्द फैसला करने की आवश्यकता है और सरकार को इसे समझना चाहिए। पीठ ने कहा, ‘अगर इसके लिए अध्यादेश की जरूरत है तो वह भी लाया जा सकता है। हम भी इस पर विचार कर रहे हैं। चूंकि आप कुछ समस्याओं की ओर इशारा कर रहे हैं, इसलिए इस प्रक्रिया में लंबा समय लग सकता है। हम बस इस पर विचार कर रहे हैं।

सुनवाई के दौरान केंद्र के वकील ने इस मुद्दे पर भारत सरकार के संयुक्त सचिव द्वारा लिखा गया एक पत्र पीठ को सौंपा। वकील ने कहा कि विचार-विमर्श के लिए कुछ समय की आवश्यकता है, क्योंकि सभी हितधारकों की राय ली जानी है। उन्होंने कहा कि इस तरह के मामलों पर समयसीमा तय नहीं की जा सकती। याचिकाकर्ता ने कहा कि बीएनएस, भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के समतुल्य किसी भी प्रावधान को शामिल नहीं करती है, जिसके कारण प्रत्येक व्यक्ति, विशेषकर ‘एलजीबीटीक्यू’ समुदाय प्रभावित होगा। उन्होंने एलजीबीटीक्यू समुदाय के लोगों के खिलाफ कथित अत्याचारों पर भी प्रकाश डाला। भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के तहत दो वयस्कों के बीच बिना सहमति के अप्राकृतिक यौन संबंध, नाबालिगों के खिलाफ यौन गतिविधियां और पशुओं से यौन संबंध को दंडित किए जाने का प्रावधान था। आईपीसी की जगह लेने वाली बीएनएस एक जुलाई 2024 को प्रभावी हुई थी।