अदालत से गठित समितियां न्यायिक कार्य नहीं कर सकतीं: दिल्ली हाईकोर्ट

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दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा है कि फीस वृद्धि और शिक्षकों के वेतन भुगतान के मुद्दे से निपटने के लिए क्षेत्रीय स्तर पर समितियां गठित करना उन्हें न्यायिक कार्य सौंपने जैसा है, जो कानून में स्वीकार्य नहीं है। उच्च न्यायालय ने कहा कि अदालतें समितियां गठित कर सकती हैं, लेकिन उनका स्वरूप केवल तथ्यान्वेषी होना चाहिए और उन पर न्यायिक कार्य नहीं थोपे जा सकते। न्यायमूर्ति सुब्रमण्यम प्रसाद और न्यायमूर्ति विमल कुमार यादव की पीठ ने एकल न्यायाधीश के आदेश को खारिज करते हुए यह फैसला सुनाया और इसे नये सिरे से विचार के लिए ‘रोस्टर पीठ’ के पास वापस भेज दिया। ‘रोस्टर पीठ’ से तात्पर्य एक प्रणाली से है, जहां मामलों का आवंटन और न्यायाधीशों की पीठों का गठन किया जाता है।

खंडपीठ ने कहा कि वह एकल न्यायाधीश के आदेश के इस हिस्से को बरकरार रखने की स्थिति में नहीं है, जिसके तहत उन्होंने शिक्षकों और स्कूलों के मुद्दों पर निर्णय लेने के लिए क्षेत्रीय तथा केंद्रीय स्तर पर समितियों का गठन किया था। पीठ ने 10 अक्टूबर के अपने फैसले में कहा, “इस अदालत की राय में, आक्षेपित निर्णय के उस हिस्से में, जिसमें एकल न्यायाधीश ने शुल्क वृद्धि, शिक्षकों को छठे और सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों के अनुरूप वेतन भुगतान तथा शिक्षकों के उन दावों पर विचार करने के लिए, जिनका उल्लेख रिट याचिकाओं में किया गया है, क्षेत्रीय और केंद्रीय स्तर पर समितियां गठित की हैं, वस्तुतः उन समितियों को न्यायिक कार्य सौंपने के समान है, जो कानूनन स्वीकार्य नहीं है।

फैसले के मुताबिक, एकल न्यायाधीश ने समितियों को शिक्षकों के दावों और स्कूलों की ओर से उठाई गई आपत्तियों पर विचार करके उनके हक या दावे पर निर्णय लेने की न्यायिक शक्ति प्रदान की है। पीठ ने कहा कि अदालतें न्यायिक कार्यों को समितियों पर नहीं छोड़ सकतीं और उनसे किसी मामले पर निर्णय लेने के लिए नहीं कह सकतीं – जो कि अदालतों या न्यायाधिकरणों का कार्य है। पीठ विभिन्न निजी स्कूलों की ओर से एकल न्यायाधीश के फैसले के खिलाफ दायर अपीलों पर विचार कर रही थी, जिसमें दिल्ली सरकार को क्षेत्रीय और केंद्रीय स्तर पर समितियां गठित करने का निर्देश दिया गया था।