अभिषेक उपाध्याय। इजरायल और हिज़बुल्लाह के बीच हालिया तनावों ने क्षेत्र में फिर से आशंकाएँ बढ़ा दी हैं—“हिजबुल्लाह को मिटाकर दम लेगा इज़राइल” जैसा नारा न केवल तीव्र सैन्य कार्रवाई का संकेत देता है, बल्कि इसके मानवीय और भू-राजनैतिक परिणाम गम्भीर होंगे। दक्षिणी लेबनान में लगातार हवाई हमलों और हिज़बुल्लाह की रॉकेट बरसात के बीच नागरिक आबादी को भारी संकट झेलना पड़ा है; स्थानीय बुनियादी ढांचे और आवागमन दोनों प्रभावित हुए हैं।
लेबनान के उच्चतम अधिकारियों ने कहा है कि लंबी लड़ाई से कोई सकारात्मक परिणाम नहीं निकला और बातचीत ही एकमात्र स्थायी राह है—यह दर्शाता है कि सैन्य विकल्प सीमाएँ और जोखिम दोनों साथ लाते हैं। अंतरराष्ट्रीय संस्थाएँ और मानवाधिकार समूह भी नागरिक हताहत और अवसंरचना के व्यापक विनाश पर चिंता जता चुके हैं, जिससे मानवीय सहायता और सुरक्षा के सवाल उठते हैं।
राजनीतिक और कूटनीतिक स्तर पर विकल्पों की जाँच जरूरी है: पारंपरिक सैन्य दबाव के साथ-साथ प्रेरक राजनयिक पहल, क्षेत्रीय मध्यस्थता और संयुक्त निगरानी व्यवस्था हिंसा को सीमित कर सकती है। विशेषज्ञों का कहना है कि घरेलू और अंतरराष्ट्रीय दबाव, साथ ही क्षेत्रीय समीकरण—विशेषकर ईरान और पश्चिमी शक्तियों की भूमिका—यह निर्धारित करेंगे कि संघर्ष किस ओर मुड़ेगा।
कठोर सैन्य रुख का भरोसा यह है कि प्रतिद्वंद्वी को कमजोर किया जा सकेगा, पर वास्तविकता में इससे सीमापार विनाश, शरणार्थियों की नई लहर और युद्ध की व्यापकता का खतरा बढ़ता है। संयुक्त राष्ट्र और अन्य अंतरराष्ट्रीय खेमे मानवीय आचरण, युद्ध के नियमों का पालन और त्वरित संवाद की पुकार लगा रहे हैं—क्योंकि दीर्घकालिक स्थिरता केवल हथियारों से नहीं, बल्कि राजनीतिक समाधान और पुनर्निर्माण से आएगी।

