1000 और 500 रुपये के नोटों को चलन से बाहर करने का फैसला सही, नोटबंदी की प्रक्रिया त्रुटिपूर्ण नहीं : सुप्रीम कोर्ट

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उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने 1000 और 500 रुपये के नोटों को चलन से बाहर करने से जुड़े केंद्र सरकार के 2016 के कदम पर सोमवार को 4:1 के बहुमत वाले अपने फैसले में मुहर लगा दी। साथ ही, न्यायालय ने कहा कि निर्णय लेने की प्रक्रिया ना तो त्रुटिपूर्ण थी और ना ही जल्दबाजी में पूरी की गई थी। इसे नरेंद्र मोदी सरकार के लिए बड़ी उपलब्धि माना जा रहा है। हालांकि, पीठ में शामिल न्यायमूर्ति बी. वी. नागरत्ना ने सरकार के इस कदम पर कई सवाल उठाए। बाजार में सुस्ती लाने वाले ‘नोटबंदी’ के आर्थिक नीतिगत फैसले पर पूरे रिकार्ड की पड़ताल करने के बाद शीर्ष न्यायालय ने कहा कि अधिक मूल्य के नोटों को चलन से बाहर करने का निर्णय त्रुटिपूर्ण नहीं था, ना ही अवैध था। न्यायालय ने कहा कि ऐसा इसलिए कि इससे जुड़ी अधिसूचना जारी किये जाने से पहले छह महीने की अवधि तक भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) और केंद्र सरकार के बीच विचार-विमर्श चला था। शीर्ष न्यायालय ने कहा कि रिकार्ड में लाये गये दस्तावेजों पर गौर करने के बाद यह माना जा सकता है कि आरबीआई के केंद्रीय बोर्ड ने इन नोटों को अमान्य करने की सिफारिश करने के दौरान संबद्ध कारकों पर विचार किया था।

आर्थिक नीति के विषयों में न्यायिक समीक्षा की गुंजाइश ”बहुत कम” होने का जिक्र करते हुए न्यायमूर्ति एस ए नजीर की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने कहा कि आर्थिक नीति के विषयों में काफी संयम बरतना होता है। पीठ ने कहा कि न्यायालय सरकार द्वारा बनाये गये किसी विचार में हस्तक्षेप नहीं करेगा, बशर्ते कि यह प्रासंगिक तथ्यों और परिस्थितियों पर आधारित हो या विशेषज्ञ की सलाह पर हो। वहीं, न्यायमूर्ति नागरत्ना ने अल्पमत वाले अपने फैसले में कहा कि 500 और 1000 रुपये के नोटों को चलन से बाहर करने का फैसला ”गैरकानूनी” था।

न्यायमूर्ति नागरत्ना ने कहा, ”मेरे विचार से, केंद्र सरकार की शक्ति का उपयोग कार्यपालिका द्वारा अधिसूचना जारी किये जाने के बजाय एक विधान के जरिये किया जाना चाहिए। यह जरूरी है कि देश के लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाली संसद में इस विषय पर चर्चा हो और इसके बाद विषय को मंजूरी दी जाए। संविधान पीठ की सबसे कनिष्ठ न्यायाधीश, न्यायमूर्ति नागरत्ना ने कहा कि आरबीआई द्वारा स्वतंत्र रूप से सोच-विचार नहीं किया गया और पूरी कवायद 24 घंटे में कर दी गई। शीर्ष न्यायालय का फैसला 58 याचिकाओं पर आया है जिसमें एक याचिका मुख्य याचिकाकर्ता विवेक नारायण शर्मा ने दायर कर नोटबंदी की कवायद को चुनौती दी थी। पीठ में न्यायमूर्ति बी. आर. गवई, न्यायमूर्ति ए. एस. बोपन्ना और न्यायमूर्ति वी. रामासुब्रमण्यन भी शामिल हैं।

पीठ ने कहा कि केंद्र के कहने पर सभी ‘सीरीज’ के नोटों को चलन से बाहर कर देना एक गंभीर मुद्दा है, जिसका अर्थव्यवस्था और देश के नागरिकों पर व्यापक प्रभाव पड़ा है। न्यायालय ने कहा कि आठ नवंबर 2016 को जारी अधिसूचना को अतार्किक नहीं कहा जा सकता और निर्णय लेने की प्रक्रिया के आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता। पीठ ने कहा कि निर्णय का इसके उद्देश्यों से तार्किक संबंध था, जैसा कि काला धन, आतंकवाद को वित्तपोषण आदि का उन्मूलन करना आदि, तथा यह प्रासंगिक नहीं है कि वे लक्ष्य हासिल हुए या नहीं। शीर्ष न्यायालय ने कहा कि चलन से बाहर किये गये नोटों को बदलने के लिए 52 दिनों का समय दिया गया था और इसे अब नहीं बढ़ाया जा सकता। पीठ ने कहा, आरबीआई अधिनियम की धारा 26 की उप-धारा 2 के तहत केंद्र के पास उपलब्ध शक्तियां बस यहीं तक सीमित नहीं की जा सकतीं कि इसका उपयोग नोटों की केवल ‘एक’ या ‘कुछ’ सीरीज के लिए किया जा सकता है और सभी ‘सीरीज’ के नोटों के लिए नहीं। पीठ ने 382 पृष्ठों के बहुमत वाले फैसले में कहा, महज इसलिए कि पहले भी दो बार नोटबंदी की कवायद विधान के जरिये की गई, यह नहीं कहा जा सकता कि इस तरह की शक्ति केंद्र सरकार के पास उपलब्ध नहीं है। न्यायालय ने कहा कि आरबीआई अधिनियम की धारा 26(2) में यह प्रावधान है कि इस तरह की शक्ति का उपयोग आरबीआई के केंद्रीय बोर्ड की सिफारिश पर किया जाएगा और इस तरह इसे रद्द नहीं किया जा सकता।

पीठ ने कहा कि उक्त अधिसूचना से जुड़ी निर्णय लेने की प्रक्रिया त्रुटिपूर्ण नहीं थी और यह इस सिलसिले में उपलब्ध कराये गये आधार पर रद्द नहीं की जा सकती। उसने कहा कि नोटों की अदला-बदली के लिए उपलब्ध कराई गई अवधि को अतार्किक नहीं कहा जा सकता। पीठ ने कहा कि न्यायालय उस परिस्थिति में विवेकाधिकार वाली शक्तियों को रद्द कर सकता है, जब लक्ष्य और उसे हासिल करने के साधन के बीच कोई तार्किक संबंध नहीं हो। न्यायालय ने कहा, अधिसूचना में उपलब्ध कराई गई अवधि को अतार्किक नहीं कहा जा सकता। निर्धारित अवधि के आगे, चलन से बाहर किये गये नोटों को स्वीकार करने की आरबीआई के पास स्वतंत्र शक्ति नहीं है। हम रजिस्ट्री को विषय को प्रधान न्यायाधीश के समक्ष प्रस्तुत करने का निर्देश देते हैं ताकि इसे उपयुक्त पीठ के समक्ष रखा जा सके।

पूरी कवायद में केंद्र द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया पर टिप्पणी करते हुए शीर्ष न्यायालय ने कहा कि केंद्रीय मंत्रिमंडल ने जब नोटबंदी पर फैसला लिया था, तब उसके समक्ष सभी संबद्ध कारकों को विचार के लिए रखा गया था। पीठ ने याचिकाकर्ताओं की दलील खारिज करते हुए कहा, ”हमारा मानना है कि निर्णय लेने की प्रक्रिया में संबद्ध कारकों पर विचार नहीं किये जाने की दलील बगैर ठोस आधार के हैं। पीठ ने यह दलील भी खारिज कर दी कि आठ नवंबर 2016 को आरबीआई के केंद्रीय बोर्ड की बैठक में ‘कोरम’ पूरा नहीं हुआ था। शीर्ष न्यायालय ने कहा कि इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि देश की आर्थिक व मौद्रिक नीतियों के बारे में अंतिम फैसला केंद्र सरकार को लेना होगा। पीठ ने कहा, ”हालांकि, इस तरह के विषयों में, इसे आरबीआई की विशेषज्ञ सलाह पर निर्भर होना पड़ेगा। मौजूदा मामले जैसे विषय में यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि आरबीआई और केंद्र सरकार अलग-अलग कार्य करेंगे।

न्यायालय ने नोटबंदी के दौरान लोगों के सामने आईं परेशानियों के मुद्दे पर कहा कि यदि उक्त अधिसूचना का संबंध हासिल किये जाने वाले लक्ष्यों से था, तब महज इसलिए कि कुछ नागरिकों को काफी समस्याओं का सामना करना पड़ा, इसे कानूनन गलत ठहराने के लिए यह आधार नहीं हो सकता। पीठ ने कहा, ”निर्णय लेने की प्रक्रिया पर भी इस आधार पर सवाल उठाये गये कि यह जल्दबाजी में पूरी की गई। हमने पाया कि यह दलील नोटबंदी के उद्देश्य के प्रति विनाशकारी होगी। इस तरह के कदम बेशक अत्यधिक गोपनीयता और तेजी से उठाये जाने की जरूरत होती है। उल्लेखनीय है कि शीर्ष न्यायालय ने सात दिसंबर को विषय से जुड़ी याचिकाओं पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था।

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