उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण कानून, 2005 एक नागरिक संहिता है जो भारत में हर महिला पर लागू होता है, चाहे उसकी धार्मिक संबद्धता या सामाजिक पृष्ठभूमि कुछ भी हो। न्यायमूर्ति बी वी नागरत्ना और न्यायमूर्ति एन कोटिश्वर सिंह की पीठ ने कहा कि 2005 का कानून संविधान के तहत प्रदत्त अधिकारों की अधिक प्रभावी सुरक्षा के लिए सभी महिलाओं पर लागू है। पीठ ने कहा, ”यह कानून नागरिक संहिता का एक हिस्सा है जो भारत में प्रत्येक महिला पर लागू होता है, चाहे वह किसी भी धार्मिक संबद्धता या सामाजिक पृष्ठभूमि से संबंधित हो। ऐसा इसलिए है ताकि संविधान के तहत उसके अधिकारों की अधिक प्रभावी सुरक्षा हो सके और घरेलू हिंसा की शिकार महिलाओं को संरक्षण मिल सके।
उच्चतम न्यायालय ने भरण-पोषण और मुआवजे से संबंधित मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती देने वाली एक महिला की अपील पर अपना फैसला सुनाया। महिला ने इससे पहले कानून की धारा 12 के तहत एक याचिका दायर की थी, जिसे फरवरी 2015 में एक मजिस्ट्रेट ने स्वीकार कर लिया था और उसे 12,000 रुपये मासिक भरण-पोषण और एक लाख रुपये मुआवजा देने का आदेश दिया था। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि महिला के पति ने आदेश के खिलाफ अपील दायर की थी जिसे अपीलीय अदालत ने देरी के आधार पर खारिज कर दिया था। शीर्ष अदालत ने कहा कि बाद में महिला के पति ने अधिनियम की धारा 25 के तहत एक और आवेदन मजिस्ट्रेट के समक्ष दायर किया, जो आदेशों की अवधि और परिवर्तन से संबंधित है, लेकिन उसे खारिज कर दिया गया।
पीठ ने कहा कि इसके बाद उन्होंने अपीलीय अदालत में अपील दायर की, जिसने इसे स्वीकार कर लिया और मामले को मजिस्ट्रेट के पास वापस भेज दिया तथा निर्देश दिया कि वह दोनों पक्षों को अपने साक्ष्य प्रस्तुत करने का अवसर देकर उनके आवेदन पर विचार करें। इसके बाद महिला ने उच्च न्यायालय का रुख किया, जिसने पिछले वर्ष अप्रैल में उसकी याचिका खारिज कर दी और मजिस्ट्रेट को अधिनियम की धारा 25 के तहत उसके पति द्वारा दायर आवेदन पर विचार करने का निर्देश दिया। अपने फैसले में उच्चतम न्यायालय ने धारा 25 का उल्लेख किया और कहा कि यह स्पष्ट है कि कानून के तहत परिभाषित पीड़ित व्यक्ति या प्रतिवादी, धारा 25 की उप-धारा (2) के अनुसार परिस्थितियों में परिवर्तन होने पर अधिनियम के प्रावधानों के तहत दिए गए आदेश में परिवर्तन, संशोधन का अनुरोध कर सकता है।
पीठ ने कहा कि अधिनियम की धारा 25(2) के तहत विवेकाधिकार का प्रयोग करते हुए मजिस्ट्रेट को इस बात से संतुष्ट होना होगा कि परिस्थितियों में बदलाव हुआ है, जिसके लिए परिवर्तन, संशोधन का आदेश पारित करने की आवश्यकता है। शीर्ष अदालत ने कहा कि अधिनियम के तहत परिस्थितियों में परिवर्तन या तो आर्थिक प्रकृति का हो सकता है, जैसे कि प्रतिवादी या पीड़ित व्यक्ति की आय में परिवर्तन, या यह भत्ता देने या प्राप्त करने वाले पक्ष की अन्य परिस्थितियों में परिवर्तन हो सकता है, जो मजिस्ट्रेट द्वारा आदेशित भरण-पोषण राशि में वृद्धि या कमी को उचित ठहराएगा।