सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला देते हुए सोमवार को कहा कि बाल पोर्नोग्राफी (अश्लील सामग्री) देखना और डाउनलोड करना पॉक्सो कानून तथा सूचना प्रौद्योगिकी कानून के तहत अपराध है। न्यायालय ने सुझाव दिया कि संसद को कानून में संशोधन कर ‘बाल पोर्नोग्राफी’ शब्द को बदलकर ”बच्चों के साथ यौन शोषण और अश्लील सामग्री” करने पर विचार करना चाहिए। इसने अदालतों से ‘बाल पोर्नोग्राफी’ शब्द का इस्तेमाल न करने के लिए कहा। प्रधान न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने मद्रास उच्च न्यायालय के उस आदेश को सोमवार को रद्द कर दिया, जिसमें कहा गया था कि बाल पॉर्नोग्राफी देखना और डाउनलोड करना बाल यौन अपराध संरक्षण (पॉक्सो) कानून तथा सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) कानून के तहत अपराध नहीं है। पीठ ने बाल पॉर्नोग्राफी और उसके कानूनी परिणामों पर कुछ दिशा-निर्देश भी जारी किए। इसने कहा, ”हमने संसद को सुझाव दिया है कि वह पॉक्सो में संशोधन करे..ताकि बाल पोर्नोग्राफी की परिभाषा बदलकर ‘बच्चों के साथ यौन शोषण और अश्लील सामग्री’ किया जा सके। हमने सुझाव दिया है कि एक अध्यादेश लाया जा सकता है।
शीर्ष अदालत ने उस याचिका पर अपना फैसला दिया जिसमें मद्रास उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती दी गई थी। उच्च न्यायालय ने 11 जनवरी को 28 वर्षीय एक व्यक्ति के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही रद्द कर दी थी, जिस पर अपने मोबाइल फोन पर बच्चों से जुड़ी अश्लील सामग्री डाउनलोड करने का आरोप था। शीर्ष अदालत ने फैसला सुनाते हुए मामले में यह कहते हुए आपराधिक कार्यवाही बहाल की कि उच्च न्यायालय ने इसे रद्द करने में गलती की। पीठ ने कहा कि सत्र अदालत को अब नए सिरे से मामले पर सुनवाई करनी होगी। इससे पहले, मद्रास उच्च न्यायालय के आदेश को गलत बताते हुए उच्चतम न्यायालय इसके खिलाफ दायर याचिका पर सुनवाई करने के लिए राजी हो गया था। उच्च न्यायालय ने कहा था कि बाल पॉर्नोग्राफी देखना और महज डाउनलोड करना पॉक्सो कानून तथा आईटी कानून के तहत अपराध नहीं है। उच्च न्यायालय ने यह भी कहा था कि आजकल बच्चे पॉर्नोग्राफी देखने की गंभीर समस्या से जूझ रहे हैं और समाज को ”इतना परिपक्व” होना चाहिए कि वह उन्हें सजा देने के बजाय उन्हें शिक्षित करे। उच्चतम न्यायालय ने याचिकाकर्ता संगठनों की पैरवी कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता एच एस फुल्का की दलीलों पर गौर किया कि उच्च न्यायालय का फैसला इस संबंध में कानून के विरोधाभासी है।
वरिष्ठ अधिवक्ता फरीदाबाद में स्थित एनजीओ ‘जस्ट राइट्स फॉर चिल्ड्रन एलायंस’ और नयी दिल्ली स्थित ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ की ओर से अदालत में पेश हुए। ये गैर सरकारी संगठन बच्चों की भलाई के लिए काम करते हैं। उच्च न्यायालय ने पॉक्सो कानून, 2012 और आईटी कानून 2000 के तहत एस. हरीश के खिलाफ आपराधिक मामला रद्द कर दिया था। अदालत ने कहा था कि सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 67-बी के तहत अपराध साबित करने के लिए व्यक्ति को बच्चों के यौन कृत्य या आचरण से संबंधित सामग्री तैयार करने, प्रकाशित अथवा प्रसारित करने में लिप्त होना चाहिए। इसने कहा था कि इस प्रावधान को सावधानीपूर्वक पढ़ने से यह स्पष्ट होता है कि बच्चों से संबंधित अश्लील सामग्री देखना सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 67-बी के तहत अपराध नहीं है।
अदालत ने कहा कि भले ही आईटी अधिनियम की उक्त धारा को व्यापक रूप से वर्णित किया गया है, लेकिन यह उस मामले को कवर नहीं करता है, जहां किसी व्यक्ति ने अपने इलेक्ट्रॉनिक गैजेट में केवल बच्चों की अश्लील सामग्री डाउनलोड की हो और उसे केवल देखा हो, तथा इससे अधिक कुछ नहीं किया। मद्रास उच्च न्यायालय ने हालांकि, बच्चों के पोर्नोग्राफी देखने को लेकर चिंता जताई थी। इसने कहा था कि पोर्नोग्राफी देखने से किशोरों पर नकारात्मक असर पड़ सकता है जिससे उनके मनोवैज्ञानिक और शारीरिक स्वास्थ्य दोनों प्रभावित होंगे। उच्च न्यायालय ने याचिकाकर्ता को सलाह दी थी कि अगर उसे अब भी पोर्नोग्राफी देखने की लत है तो वह काउंसलिंग करा सकता है।